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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

अवज्ञा


मैं नाफरमाबरदार जीव हूँ यानी सरकश इंसान ! मैंने समाज नीति नहीं मानी। राष्ट्रनीति भी नामंजूर कर दी। सब कुछ से इनकार करके, मैं दुरंत, दुर्दीत क्रमशः आगे बढ़ती रही। इस वजह से लोगों ने मेरी आलोचना भी की, तरह-तरह के इल्ज़ाम भी लगाते रहे। रास्ता-घाट, दुकान-पाट, मेला-जुलूस, जहाँ भी मुझ पर नज़र पड़ी, मुझ पर कंकड़-पत्थर बरसाए, गाली-गलौज की। अख़बारों में मेरे बारे में अश्लील मंतव्य दिए। सरकार ने मेरे खिलाफ मुकदमा ठोंक दिया। सवाल यह उठता है कि मैंने समाज-नीति क्यों नहीं मानी। मैंने नहीं मानी, क्योंकि औरत के प्रति समाज का विषमता भरा आचरण मेरी नज़रों में अमानवीय लगता है। सिर्फ औरत ही नहीं, संख्यालघु लोगों के खिलाफ जातीय कानून और उन लोगों पर समाज के संख्याबहुल लोगों के अन्यायपूर्ण आचरण, मेरे लिए करना संभव न हो सका। इसलिए मैंने अपनी कृतियों में इन निर्ममताओं और बर्वरताओं का प्रतिवाद किया है। मैं थी सरकारी अस्पताल में चिकित्सक! सरकारी कर्मचारी या अधिकारियों का सरकारी अनुमति बिना, पत्रपत्रिकाओं में लिखना या किताबें प्रकाशित कराना. कानन के खिलाफ है। इसके बावजद मैं लिखती रही। मुद्दे की बात यह कि सरकार के प्रति नाफरमानी की है, क्योंकि लेखन के माध्यम से लोगों को समाज की समस्याओं की जानकारी देना, मुझे ज़रूरी लगा। मुझे हमेशा युक्तिसंगत बात करना भला लगता है। जब मैं कुल तेरह साल की थी, मेरी अम्मी कहा करती थी- 'घर के बाहर मत जाओ। क्योंकि लड़की जात घर से बाहर नाहीं निकलतीं। लड़की जात को मनमानी भी नाहीं करना चाही।' मुझसे वे नमाज़ पढ़ने को कहती थीं, रोज़ा रखने, पर्दा करने का मशविरा देती थीं। खैर, यह सब करने के पीछे, मुझे कोई युक्ति समझ में नहीं आई। चूँकि मैं लड़की हूँ, इसलिए मुझे घर में बैठे रहना होगा। बाहर खेल के मैदान, नदी किनारे, जहाँ मेरे हमउम्र लड़के जाते हैं, वहाँ मेरा जाना नहीं चलेगा-यह बात मैं किसी शर्त पर भी कबूल नहीं कर सकी। मैंने अम्मी की भी नाफरमानी की। कमरे के दमघोंटू आबोहवा से निकलकर, मैं दौड़कर खुले आसमान तले जा पहुंची। खुले मैदान, नदी के सुहाने किनारे घूम-फिर आती। मुझे नाफरमाबरदार लड़की कहा गया। जब मैं बड़ी हुई मेरे अब्बू-अम्मी, नाते-रिश्तेदारों ने मेरी शादी कर देनी चाही। जिसे मैं जानती-पहचानती नहीं उसके साथ शादी? मैंने साफ़ जवाव दे दिया कि ऐसी शादी मैं किसी शर्त पर भी नहीं करूँगी। मेरी राय में यह वदस्तूर अन्याय है। सिर्फ मेरे ही संदर्भ में नहीं, जब भी मुझे कोई कमउम्र लड़की या परिचित सखी-सहेलियों की शादी जोर-ज़बर्दस्ती किसी अनजान-अपरिचित शख्स से तय होते हए देखती, मैं उन्हें नाफरमाबरदार होने की सलाह दे डालती थी। काजी जव निकाह के वक्त उसकी मर्जी जानने आएँ कि वह व्याह के लिए राजी है या नहीं, वह सबके सामने ही 'ना' कह दे या घर छोड़कर चली जाए। समाज का यह नियम हरगिज कबूल न करे। अगर अपने नैतिक बोध को यह इंतजाम बेतुका लगे तो खामोशी से मान लेना, हरगिज ज़रूरी नहीं है। मैंने ऐसा भी देखा है कि बहुतेरी औरतें पति के अत्याचार बर्दाश्त करती रहती हैं। लेकिन उसका घर त्याग करने की हिम्मत नहीं करतीं, क्योंकि समाज में वे 'नष्ट औरत' या 'बुरी औरत' कही जाएँगी। बहुतेरी औरतें सोचती हैं कि समाज के जो नियम हैं, उन्हें मानकर चलना चाहिए। अपनी बुद्धि या विवेक से न्याय-अन्याय का विचार करने की क्षमता या साहस, उन लोगों में नहीं होता। समाज के ही नियम या नीति की बात नहीं है, हमारे देश के काफी सारे कानून ही औरतों की आज़ादी के विरोधी हैं। मसलन विवाह कानून! यह धर्म पर आधारित है। इस नियम के तहत पति अपने घर में चार-चार बीवियाँ रख सकता है। कोई भी औरत पति को अन्य तीन औरतों में हिस्सा बाँट हरगिज नहीं करना चाहती। लेकिन अधिकांश औरतें धार्मिक कानून के आगे लाचार होती हैं। इन धार्मिक कानूनों के प्रति इंसान को नाफरमान बनाने के लिए जिस जागरूकता, शिक्षा और संस्कृति की ज़रूरत है, वह बहुतेरे अन्य देशों की तरह, बंगलादेश में भी अब तक तैयार नहीं हुआ है।

'लज्जा' नामक मेरे एक तथ्य आधारित उपन्यास में संख्यालघु हिंदुओं पर मुसलमानों के अत्याचार का बयान है। सरकार ने यह उपन्यास ज़ब्त कर लिया है। ज़ब्त करने के पीधे यह वजह खड़ा किया गया है कि विभिन्न धार्मिक संप्रदायों में गलतफहमी पैदा हो सकती है, दंगा-फसाद हो सकता है, वगैरह-वगैरह! असल में वह किताब परी तरह सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी है। लेकिन, इसके बाद भी, मैंने असाम्प्रदायिकता के पक्ष में लिखना बंद नहीं किया है। इसी तरह, इस्लामी धर्मग्रंथ, कुरान के प्रति, मेरे इनकार वाचक मंतव्य की वजह से सरकार ने मेरे खिलाफ इंसान की धार्मिक अनुभूति को ठेस पहुँचाने का इल्ज़ाम लगाकर, मुझ पर मुकदमा दायर कर दिया है। पुलिस मुझे जेल में ठूसने आ धमकी। चूँकि जेल मेरे लिए सुरक्षित नहीं है, इसलिए मैं फरार आसामी बनकर, सरकारी कानून का उल्लंघन करते हए, दो महीनों तक छिपी रही। मैंने अपनी गिरफ्तारी नहीं दी। समाज के धार्मिक ठेकेदारों ने मुझे फाँसी देने और इस्लामी कानून मुताबिक मेरी हत्या करने का खुलेआम ऐलान कर दिया। समूचे देश के लाखों-लाख लोगों ने मेरे खिलाफ जुलूसें निकालीं, हड़तालें की, सिर पर इनाम घोषित किया। मैं इस्लामी कानून का उल्लंघन करते हुए, सरकारी कानून की अवज्ञा करते हुए, अपने और अन्यान्य युक्तिवान लोगों की मदद से, अपना देश छोड़ आई और धर्म के खिलाफ सामाजिक विधि-निषेध और कुसंस्कारों के विरुद्ध अपनी राय और मंतव्य लगातार प्रचारित करती रही हूँ क्योंकि अपनी जिस जागरूकता, विवेक और नीतिबोध की हिफाज़त की है, वह मुझे किसी भी अन्याय और विषमता के आगे सर नहीं झुकाने देता।

देश की सार्वभौमिकता को भी मैंने कबूल नहीं किया। समाज या राष्ट्र के क्षमताशाली लोगों ने मुझ पर देशद्रोही होने का इल्ज़ाम लगाया है। मेरा ख्याल है कि पूर्व और पश्चिम दोनों बंगाल को मिलाकर, वंगलादेश निर्मित होना चाहिए था क्योंकि भारत के पश्चिम बंगाल में भी इसी भाषा और संस्कृति के लोग निवास करते हैं। भारत धर्म के आधार पर विभाजित हुआ था। सन् 1971 के वंगलादेश के मुक्ति-युद्ध ने यह साबित कर दिया है कि धार्मिक आधार पर देश का विभाजन सरासर भूल थी। लेकिन धर्म की वजह से जो दूरी पूर्व और पश्चिम बंगाल में है, वह भी क्यों रहे? बंगलादेश बंगालियों का देश होगा, वह चाहे बंगाली मुसलमान हो या हिंदू हो; बौद्ध हो या ईसाई हो! अपने माथे पर 'देशद्रोही' होने का इल्ज़ाम लेकर भी, अपनी नीतिबोध की वजह से, मैं दोनों बंगाल को इकट्ठा करने के पक्ष में लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रही हैं। राष्ट और समाज की नीति मेरी नीति से नहीं मिलती। लेकिन गणतांत्रिक राष्ट्र का नियम ही यही है कि जैसे राजनीतिक मतवाद भिन्न-भिन्न होते हैं, जिस किसी भी विषय में इंसान का अपना मत होता है और मत के प्रति समाज या राष्ट्र की तरफ से कोई बाधा आती है, तभी नाफरमानी का सवाल उठता है। ऐसे में जो भी शख्स, जो कुछ भी कहता है, मैं क्या बेजान चीज़ या गाय-भेड़ की तरह बस, सिर झुकाकर मान लूँ? या नाफरमाबरदार हो जाऊँ? नाफरमाबरदार होने के लिए सच्चे और सख्त नीतिबोध की ज़रूरत है। इसके लिए असीम साहस चाहिए। ऐसा नीतिबोध और साहस, सबमें नहीं होता। राष्ट्र के कला-कौशल, अधिकांश लोगों को गूंगा-बहरा-बोधहीन और साग-पात बना देता है।

राष्ट्र में स्वेच्छाचारी सरकार या तानाशाही शासन लागू हो तो आम जनता में असंतोष नज़र आने लगता है। वे लोग बार-वार कानून की अवमानना करते हैं, नाफरमाबरदार होते हैं, क्योंकि आम जनता का मत लेकर नियम कानून नहीं बनते। गणतांत्रिक देशों में अवज्ञा की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है। क्योंकि अवाम की पसंद-नापसंद के आधार पर नियम-कानून में संशोधन की भी व्यवस्था होती है। इसके बाद भी मैंने देखा है कि गणतांत्रिक देशों में भी इंसान अपने नैतिक मूल्यवोध की वजह से नाफरमानी करता है! स्वीडन जैसे आदर्श गणतांत्रिक देश में जहाँ मानवाधिकार के बारे में बड़े एहतियात से विचार-विमर्श होता है, मैंने देखा है, वहाँ भी लोग कानून का उल्लंघन करते हैं। एक मिसाल दूँ! दरिद्र देश के लोग, जव स्वीडन आकर, राजनीतिक शरण चाहते हैं और उन्हें शरण नहीं दी जाती, तो वे लोग स्वीडन में 'अवैध' समझे जाते हैं। पुलिस उन्हें धर-वाँधकर ज़बर्दस्ती उनके देश वापस भेजने के लिए, खोज निकालती है। तव बहुत से मानवतावादी स्वीडिश लोग, उन अवैध एमिग्रेटों को अपने घरों में छिपा रखते हैं और उन लोगों के खाने-पीने का इंतज़ाम करते हैं। कानून की नज़र में यह अन्याय है लेकिन वे लोग यह अन्याय अपने नैतिक बोध से करते हैं। चूँकि उन लोगों को यह सही लगता है। उनका अपना मानवता-बोध, - राष्ट्र के मानवता-बोध से फर्क होता है। लेकिन तब यह सवाल उठता है कि इंसानों के मानवता बोध से, राष्ट्र की मानवाधिकार नीति क्यों नहीं तैयार करता। इसकी वजह शायद यह है कि अधिकांश जनता ऐसा नहीं चाहती या वह तो चाहती है, मगर शासकों का राजनीतिक स्वार्थ, इसे मिटा देता है।

पश्चिमी पाकिस्तानी शासक जब पूर्व पाकिस्तान को एक कॉलोनी मानकर, अंग्रेजों की तरह उस पर शासन और शोषण कर रहे थे, तव पूर्व पाकिस्तान की जनता ने उसे मंजूर नहीं किया। उन लोगों ने पाकिस्तानी शासकों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। उस वक्त पूर्व पाकिस्तान की शोषित निपीड़ित लोगों के नीति-बोध, पाकिस्तानी राष्ट्रीय नीति के खिलाफ अड़ गये। इस तरह एक नए स्वाधीन देश का जन्म हुआ। इंसान का मानवताबोध नव हिंस्रता, निर्ममता को मानने से इनकार कर देता है। तब वे लोग एकजुट हो जाते हैं। यह वृहद्तर सम्मेलन बेशक राष्ट्रीय या सामाजिक नीति को बदलने में मदद करता है। दुनिया के इतिहास में अन्याय, रक्तपात, घात-प्रतिघात के खिलाफ इंसान ही पैर जमाकर खड़ा हो गया है और दुनिया को रहने लायक बना लेता है। महात्मा गाँधी के नीति बोध ने इंसान के बोध को अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने को और उनके राज-शासन की उपेक्षा करने के लिए जाग्रत किया। किंग मार्टिन लूथर के नीतिबोध ने काले और गोरे लोगों में विषमता मिटाने के आंदोलन में हजारों-हज़ार लोगों को शरीक होने को प्रेरित किया। नेल्सन मंडेला का नीतिबोध, राष्ट्रीय नीति के खिलाफ डटकर खड़ा हो गया। महान लोगों ने हमेशा ही मानव-कल्याण के पक्ष में अपने नीतिबोध को सजग और स्थिर रखा है। विएतनाम युद्ध में अनगिनत अमेरिकी लोगों ने जाने से इनकार कर दिया यानी उन लोगों ने सरकारी हुक्म की अवमानना की। उन लोगों ने अपने नैतिक बोध का विसर्जन नहीं दिया और देशांतरी तक हो गए। सच तो यह है कि जो लोग अन्याय के खिलाफ अपनी नैतिकता को मजबूत रखते हैं, उनमें से बहुतेरे लोगों को तरह-तरह की कीमत चुकाना पड़ती है। कोई क़त्ल हो जाता है, कोई देशांतरी हो जाता है, किसी-किसी को जेल की सज़ा हो जाती है। फिर भी वे लोग अपनी नज़र में, अपने प्रति शुद्ध होते हैं। इतिहास में ही यह भी नज़र आता है कि नात्सी शासन काल में, जर्मन फौजियों ने अपने-अपने नैतिकताबोध का विसर्जन देकर, कन्सल्ट्रेशन कैम्प में लाखों-लाखों यहूदी, जिप्सी, कम्यूनिस्ट लोगों की हत्या की। उनका कहना था, उन लोगों ने सरकारी हुक्म का पालन किया है! दुनिया के विभिन्न देशों में ऐसे ढेरों नज़ीर मिलते हैं, जहाँ सरकारी हुक्म चाहे जितना भी मानव विरोधी हो, उसका पालन किया जाता है। सरकारी हुक्म पर ही, पुलिस किसी भी सरकार-विरोधी जुलूस पर गोलियाँ चलाती है। पुलिस अपना नीतिबोध का विसर्जन देकर भी यह काम करती है, क्योंकि उन लोगों को यही लगता है कि सरकारी नीति का पालन करना ही पुलिस का पवित्र कर्तव्य है। कोई-कोई पुलिस इसकी अवमानना भी करती है और अपनी इस नीति-रक्षा की वजह से ही, उन्हें अपनी नौकरी तक गँवाना पड़ती है। जेल जाना पड़ता है। जिंदगी में ढेरों दुर्भोग झेलना पड़ता है। ऐसा जोखिम सभी नहीं लेते या ले नहीं पाते। युग-युगों से इंसान ही हिंम्न व्यवस्था का अनुगामी हुआ है और इंसान ने ही इसे अस्वीकार भी किया है।

विविध समाज में विभिन्न तरह के नीतिबोध हैं। समाज के नीतिबोध का मान नितांत ही आपेक्षित है। यह उस समाज के आर्थिक-सामाजिक ढाँचे, राजनीतिक व्यवस्था, धर्म, शिक्षा, संस्कृति पर निर्भर करता है। हमने मानवता के संदर्भ में नीति-बोध-विचार का मानदंड खड़ा कर लिया है। जो लोग धर्म से नैतिकता की शिक्षा लेते हैं, वे लोग धर्म के अमानवीय पक्ष को भी महान मान लेते हैं। मेरी राय में नैतिकता अर्जन का मूल आधार धर्म नहीं, युक्ति, बुद्धि, विवेक और हृदय होना चाहिए। मानवता के पक्ष में सुशिक्षा, इंसान के नैतिकताबोध को विशाल व्याप्ति देती है और उसे आलोकित करती है। फिर भी इंसान ने कारण-अकारण नैतिकता का विसर्जन दिया है, दे रहे हैं! मेरा ख्याल है कि पुराने ज़माने की तुलना में, आज के युग में, अनगिनत समाज में समाज और राष्ट्र-व्यवस्था का विरोध करना, ज़्यादा आसान हो गया है। पुराने ज़माने में यूरोप में जो लोग गिरजाघर के अनुगामी नहीं होते थे, उन्हें जलाकर मार डाला जाता था। आज के ज़माने में गिरजाघर के नियम-कानून मानकर न चलना पहले की तरह गुनाह नहीं समझा जाता। समाज-व्यवस्था कभी भी स्थिर नहीं होती, इसमें हमेशा ही परिवर्तन होता रहता है। युग-युगों से इंसान अगर समाज-व्यवस्था के बारे में सोचता न होता, प्रतिवाद न करता, तो बुझे हुए पोखर की तरह समाज भी वेगहीन और दर्गंधमय हो उठता। चँकि इसमें वेग और परिवर्तन है. इसलिए इंसान और उसका समाज धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ़ता जा रहा है। अर्थनैतिक, राजनीतिक, सामाजिक, मानविक, नैतिक बोध बढ़ रहा है; बोध का दायरा भी बढ़ रहा है। नाफरमानी प्रगति के लिए मंगलजनक भी है। इसके बावजूद, किसी-किसी देश ने धर्म की दुहाई देकर या हथियार के ज़ोर पर, पुरानी समाज-व्यवस्था को टिकाए रखा है! मध्य-प्राच्य के बहुत से देश इसकी मिसाल हैं!

असल में अवमानना शब्द नेतिवाचक है। धर्म, राष्ट्र, समाज की सुस्थिति-रक्षा करने के लिए, जन-गण को नियम-कानून मानकर चलना चाहिए। लेकिन, धर्म, राष्ट्र या समाज-व्यवस्था अगर इंसान की नैतिकता पर चोट करता है, तो इंसान का नाफरमाबरदार हो जाना ही ज़रूरी है। ऐसी स्थिति में नाफरमानी गठनमूलक हो उठती है। इसके अलावा एक और किस्म की अवज्ञा तो खैर, पहले से ही मौजूद है जो नैतिक क्षय का कारण है। चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, दंगे वगैरह के पीछे की वजह है, बहुतों का नैतिक अधःपतन! धार्मिक प्रचार-प्रसार, अर्थनैतिक पतन, सामाजिक क्षय, राजनीतिक अस्थिरता, इंसान के नैतिक अधःपतन के लिए, काफी हद तक जिम्मेदार है।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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